जब एक फोन कॉल ने बदल दी हमारे क्षेत्र की किस्मत, नहीं होता अभी भी यकीन
कहते हैं दिल्ली दिलवालों का शहर है। यह बात मुझे उस वक़्त समझ आयी जब मैं रांची से यहां काम ढूंढने आया और इस शहर ने मेरा स्वागत बांहे खोल कर किया। यहां मुझे अच्छे दोस्त मिले, पसंद की नौकरी मिली, और परांठे तो ऐसे की आप अपनी उंगलियां खालें। सब बढ़िया चल रहा था, लेकिन कोरोना महामारी और फिर लॉकडाउन ने सब उलट-पुलट कर दिया।
लॉकडाउन में मैंने अपने घर से ही काम शुरू कर दिया। शुरू के कुछ दिन तो मज़े में बीते। बिस्तर से ऑफिस की दूरी बस लैपटॉप उठाने जितनी थी। मैंने सोचा अब एक्सरसाइज भी होगी, गिटार भी सीखूंगा और काम तो चल ही रहा है। लेकिन धीरे-धीरे यह एहसास हुआ कि दफ़्तर जाने वाले दिनों में काम का एक वक़्त होता था, पर अब तो हमेशा ही काम चल रहा है। उपर से जब सहकर्मियों के साथ मैं कॉल पर होता हूं, तो किसी के यहां से बच्चे के रोने की आवाज़, किसी की माताजी बादाम खिला रही हैं, और कोई अपनी बिल्ली को संभाल रहा है। और यहां मैं बिलकुल अकेला। घर का काम भी खुद ही करना पड़ रहा था, क्योंकि बाई बुलाना ख़तरे से खाली नहीं था।
सोचा परछाई भी साथ छोड़ देगी
तो जैसे ही अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हुई, मैंने फटाफट अपने घर जाने की तैयारी शुरू कर दी। सरकार के अनुसार हर बाहर से आने वाले व्यक्ति को 14 दिन तक क्वॉरंटीन में रहना था, इसीलिए शनिवार को घर पहुंचकर मैंने कोने के कमरे में अपना समान और अपना लैपटॉप रख लिया।
पहुंचने भर की देरी थी कि पूरे मोहल्ले से कॉल आने शुरू हो गए। बेटा तुम पहुंच गए, सफर कैसा रहा इत्यादि। छोटे शहरों में दूसरों के घर में क्या हो रहा है, इसकी खबर लोगों को ज्यादा होती है। गुप्ता जी तो बोलने लगे कि अब तुम आ गए हो, तो मधुर को थोड़ा गणित पढ़ा देना, क्योंकि स्कूल सारे बंद हैं और फिर हमारे पास तो ढंग का इंटरनेट भी नहीं है। मैंने अपना फोन स्विच ऑफ किया और सो गया।
शाम को नींद खुली तो मां के हाथ की चाय पीकर सोचा थोड़ा ऑफिस का काम कर लिया जाए। एकाएक मुझे याद आया कि मेरे यहां Wi-Fi की व्यवस्था नहीं है, ये ख्याल आते ही मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया, क्योंकि इतनी ज़रूरी चीज़ के बारे में मैंने ध्यान ही नहीं दिया था और सॉफ्टवेयर इंजीनियर होने के नाते इंटरनेट से और अपनी टीम से जुड़े रहना ज़रूरी था। कुछ पल के लिए तो ये भी सोचा कि वापस दिल्ली ही चला जाए, फिर मन बनाया कि एक कोशिश करके देख लेते हैं, क्या पता कोई हल कहीं से निकले।
सारे टेलीकॉम प्रोवाइडर्स से बात करने पर पता चला कि हमारे एरिया में ब्रॉडबैंड लाइन ही नहीं है, कनेक्शन लेना तो दूर की बात है! मुझे लगा नौकरी हाथ से गयी। उसी बीच पिताजी ने पूछा क्या खाओगे, तो मैंने झिड़क के कहा कुछ नहीं, नौकरी नहीं रहेगी तो खाएंगे कैसे? पिताजी ने शान्ति से पूछा, “अगर पूरे समय गुस्से में अपने कमरे में बंद ही रहना था, तो दिल्ली से आने की ज़रुरत ही क्या थी? सिर्फ मां से खाना बनवाने?” मैंने उनके सवाल को अनसुना कर दिया।
मैंने Airtel के कस्टमर केयर पर कॉल किया और अपने क्षेत्र की ब्रॉडबैंड लाइन संबंधी समस्या के बारे में उन्हें बताया। लेकिन मन में यह भी विचार आया कि लॉकडाउन के समय हमारे क्षेत्र में कौन ब्रॉडबैंड लाइन इंस्टॉल करने आएगा। अगर कोई आएगा भी, तो 10-15 दिन जरूर लेगा। लेकिन दो दिनों के बाद Airtel के दो इंजीनियर्स मुंह पर मास्क लगाए और बाकी नियमों का पालन करते हुए घर पर आए।
मुझे यकीन नहीं हुआ कि महानगर की तरह रांची जैसे छोटे शहर में भी ब्रॉडबैंड लाइन इंस्टॉल करने की सर्विस इतनी अच्छी हो सकती है, वो भी इस मुश्किल वक्त में। मैं हैरान था, इसलिए मैंने उनसे पूछा, “आप लोग इतनी जल्दी आ गए, मुझे लगा आप एक-दो हफ्ते जरूर लेंगे।” उनमें से एक इंजीनियर ने कहा, “आप दिल्ली से इतनी दूर रांची आ गए, अपने माता पिता का साथ देने। फिर हम तो अपनी ड्यूटी ही कर रहे हैं। लॉकडाउन में स्टाफ की कमी है, इसलिए आपको दो दिन बोला, नहीं तो आवेदन देने के अगले दिन ही हम अपना काम शुरू कर देते हैं।” Covid -19 के दौर में भी Airtel ने फुर्ती से मेरी समस्या को दूर किया और ब्रॉडबैंड की लाइन तो लगाई ही, ब्रेकर बॉक्स भी मेरे घर के आगे इंस्टॉल कर दिया। ब्रॉडबैंड लाइन लगने की वजह से देखते ही देखते हमारी गली के नौ और घरों ने भी Airtel से इंटरनेट लगवा लिया। अब ये क्षेत्र भी बाकी क्षेत्रों जैसा ही आधुनिक होने की राह पर है।
मैंने Airtel को शुक्रिया किया और अपने काम में लग गया। कुछ दिन बाद मुझे यह वीडियो दिखी, जिसमें Airtel अपने कस्टमर्स के सवालों का जवाब देने की बात कर रहा था। मेरा तो खुद का फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस भी था।
यह देख के मैंने सोचा कि जिस बड़े दिल की वजह से मुझे दिल्ली इतनी पसंद थी, वो बड़ा दिल क्या मैं वहीँ छोड़ आया था? जब मैं इधर पहुंचा और सबने मेरी खैर खबर पूछी तो मैंने सीधे मुंह जवाब क्यों नहीं दिया? अगर Airtel जैसी बड़ी कंपनी मेरी मदद करने से पीछे नहीं हटी, तो मुझे मधुर की गणित में थोड़ी मदद करने में तकलीफ क्यों हुई? पर इन सवालों के जवाब Airtel नहीं, मुझे खुद ही को देने थे।
Airtel की बदौलत हमारे मोहल्ले में ब्रॉडबैंड तो आ गया, पर मैंने ठान लिया कि मैं सबको अपने खाली समय में इंटरनेट का इस्तेमाल करना भी सिखाऊंगा और मधुर और उसके जैसे बाकी बच्चों को ऑनलाइन क्लासेस के जरिये मदद भी करूंगा। और हफ्ते में कम से कम एक बार YouTube से रेसिपी देखकर मां को अपने हाथ का खाना खिलाऊंगा।
अपनों के बीच होकर भी अकेले नहीं रहूंगा और हर सवाल का जवाब डट कर दूंगा।